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आकाश / ऋषभ देव शर्मा

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देखो!
पंख होते हुए भी
यह पंछी
कभी उड़ा ना था
हमेशा बस
यही लगता रहा इसे
कि
जब
खुला आकाश नहीं,
उड़ने की आज़ादी नहीं,
तब
पंखों का
होना ना होना
अर्थ ही क्या रखता है!
और इसीलिए
मानस के राजहंस ने
अपने सुनहरे पंख
साँप की केंचुल जैसे
छोड़ दिये
तुम्हारी झोली में,
मेरे पंख
तुम्हें मिल गए–
जैसे इनका होना
सार्थक हो गया!

मेरे पास आकाश नहीं है,
न हो,
पर तुम तो हो,
तुम्हारी आंखों में झाँकता हुआ
इंद्र्धनुष तो है|
मेरे पास
पंख नहीं हैं, ना हों,
पर तुम तो हो–
तुम–
जो मुझे
समुद्रफेन पर बिठाकर
अनंत तक
उड़ा ले जाती हो|

कितना सुख हैं
इस अनुभूति में
कि–
तुम्ही मेरे पंख हो,
तुम्ही मेरी उड़ान,
तुम्ही मेरा आकाश,
और यह सारा आकाश–
मेरी बाँहो में सिमटा है
मेरे होठों से चिपका है
मेरी आँखों में
अँज गया है!