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यह रात पगली / ऋषभ देव शर्मा

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चंद्रमा से कह गई यों, देश जाती शाम
आज की यह रात पगली, पुर्णिमा के नाम
 
सृष्टि के प्ररांभ से तन-मन कुआँरा नभ पड़ा
आज सुने शीश किसने स्वर्ण का टीका जड़ा
 
आँसुओं में खिल बिखरते इंद्रधनु अभिराम
 
भूमि मधु में डूबती सी रात की बाँहों गिरी
चेतना उन्मादिनी हो बादलों के सर तिरी
 
बाँस वन में रास की धुन गोपिका घनश्याम
 
तारकों की दृष्टि प्रहरी मर्म सी चुभने लगी
हरी कच्ची आमियाँ क्यों चाँदनी चुनने लगी
 
क्षीर सागर में नहाई रूपराशि ललाम