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प्रीति और प्रतिशोध / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति

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ममत्व और प्रीति के पिपासित

मेरे उद्वेलित ,संवेदित और खोजी प्राण ,

नियति की ही खोज पर,

नियति की उंगली थाम कर,

नियति पुरूष तक आए.

रोम -रोम से ध्वनित प्रीति की झंकार

प्रीति मय प्रतिमान का प्रतीक बनकर ,

हृदय सम्राट के साम्राज्य की

साम्राज्ञी बननेके ,

भावः विभोर गौरव से गौरान्वित ,

स्वप्निल आनंद के सिन्धु घहराने लगे.

मेरी प्रीति मय मादकता और धन्यता का पार न था .

मुझे एक ध्रुवीय सत्ता मिल गयी

तुम मेरे अपने हो एक पूर्ण आधार.

तुम ही तो प्रतीक्षित थे

अब तुम आर पार और समक्ष हो.

मेरी बेचैन आत्मा को,

अपनी अस्मिता सिद्ध करने का एक दैहिक ,

आत्मिक जुडाव का केन्द्र मिला .

चैतन्य पूर्णत्व तुम मेरे अपने हो.

पर बड़ी दुरूह ,

निगूढ़ और अचिन्त्य होती है.

नियति की प्रवंचनाएँ ,

नियति से प्रवंचित

भावनाओं के उत्कर्ष पर पहुँच कर नियति कब

अपकर्ष के पाताल में ले जायेगी ,

इस अनुतरित वेदना को

सर्वग्य के सिवाय कोई भी तो नहीं समझ सकता .

एक असंग शरणागति में अस्मिता खो गयी .

निवेदन कातर नारीत्व की बार -बार अवहेलना ,

उपेक्षा

प्रीति कब प्रतिरोध बन गयी.

पता ही न चला.

आत्मिक प्रीति और प्रतीति,

शारीरिक रीति और कूटनीति

मेरे साथ दोनों ही एक साथ चले,

प्रीति और प्रतिशोध दोनों को साथ -साथ पिया ,

जीवन में मृत्यु और मृत्यु में जीवन को साथ -साथ जिया .

प्रीति और प्रतिशोध में एक साथ जीना कम नहीं,

में जो विषमता सह गयी ,

उस विषमता का सम नहीं.

अब खोजती हूँ तृप्ति जग के तप्त इस संसार में ,

एक नन्हे विहग की ऐसी अनोखी प्यास है.