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चाँदनी पागल करे है / ऋषभ देव शर्मा
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यह सुना था, पूर्णिमा की चाँदनी पागल करे है
पर नहीं था ज्ञात, अमरित की किरण घायल करे है
खा लिए अंगार मैंने, सात सागर पी चुका हूँ
रोम-कूपों में उमगती इक नदी छलछल करे है
घाट पर भीगी तनिक सी चुनरी जो राधिका की
बूँद उसकी निचुड़ बिखरी, हर दिशा उज्ज्वल करे है
बाँसुरी के सुर बयारों को सुगंधित कर रहे हैं
रास की धुन पायलों के पाँव को चंचल करे है