भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चाँदनी पागल करे है / ऋषभ देव शर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:37, 30 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=प्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह सुना था, पूर्णिमा की चाँदनी पागल करे है
पर नहीं था ज्ञात, अमरित की किरण घायल करे है

खा लिए अंगार मैंने, सात सागर पी चुका हूँ
रोम-कूपों में उमगती इक नदी छलछल करे है

घाट पर भीगी तनिक सी चुनरी जो राधिका की
बूँद उसकी निचुड़ बिखरी, हर दिशा उज्ज्वल करे है

बाँसुरी के सुर बयारों को सुगंधित कर रहे हैं
रास की धुन पायलों के पाँव को चंचल करे है