भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुवाहाटी की शाम / दिनकर कुमार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:21, 3 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनकर कुमार |अनुवादक=कौन कहता है...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुवाहाटी की शाम
मेरे भीतर समा जाती है
विषाद की तरह
 
भूरे रँग के बादल
मण्डराते रहते हैं
और नारी की आकृति की
पहाड़ी मानो
अँगड़ाई लेती है

गुवाहाटी की शाम
सड़कों पर दौड़ते-भागते लोग
साइरन की आवाज़
और दहशत से पथराए चेहरे
 
एक डरावना सपना
अवचेतन मन में
उतरने लगता है
नश्तर की तरह

गुवाहाटी की शाम
स्मृतियों में
बारिश की फुहारों-सी
लगती है
जब भीगते हुए
गुनगुनाते हुए उम्र की पगडण्डी पर
सरपट दौड़ना अच्छा लगता था