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गुवाहाटी की शाम / दिनकर कुमार
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गुवाहाटी की शाम
मेरे भीतर समा जाती है
विषाद की तरह
भूरे रँग के बादल
मण्डराते रहते हैं
और नारी की आकृति की
पहाड़ी मानो
अँगड़ाई लेती है
गुवाहाटी की शाम
सड़कों पर दौड़ते-भागते लोग
साइरन की आवाज़
और दहशत से पथराए चेहरे
एक डरावना सपना
अवचेतन मन में
उतरने लगता है
नश्तर की तरह
गुवाहाटी की शाम
स्मृतियों में
बारिश की फुहारों-सी
लगती है
जब भीगते हुए
गुनगुनाते हुए उम्र की पगडण्डी पर
सरपट दौड़ना अच्छा लगता था