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अविचल तितिक्षा / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति

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अविचल तितिक्षा कोई तप का हिमालय नहीं,

केवल कर्म पंथ के पुजारी होकर

निष्काम व्र्य्त्ति से लक्ष्य का संधान करना है.

मेरी गति यह है कि ------

पथ हारी हूँ गंतव्य स्थली भूल गयी हूँ.

मुमुक्ष हूँ,

लेकिन द्वान्दातीत प्रदेश के

भूगोल से अपरिचित हूँ .

बोध की कलियाँ खुले तो,

प्रबोध का पराग देखूं .

संवेग जागा है ,

अतः आत्मार्थी से मोक्षार्थी

होने की चाह जागी है.

मोक्षार्थी होने की राह बंकिम है या सीधी,

जान लूँ तो भुक्ति भी मुक्ति हो जाए.

सूना है ज्ञान पूर्वक जीना

हर पल मुक्त होना है.

इच्छाओं के अंत का अर्थ ,

संस्कारों का बनना बंद होना है.

संचित को निः स्पृह होकर भोग सकूं ,

वर्त्तमान को इतना निरासक्त होकर

जी सकूं,

कि भविष्य बने ही नहीं.

इसी रूप में ईश्वर तुम्हारा अनुराग देखूं ,

फ़िर मुझे कौन रोकेगा ,

अपने केन्द्र बिन्दु में जाने से ,

बस तुम त्यक्तेन भुंजीथा का

मूल मंत्र सुनाते रहना .