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जाल / सविता सिंह

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न प्रेम, न नफ़रत, एक बदरँग उदासी है
जो गिरती रहती है भुरभुराकर आजकल
एक-दूसरे की सूरत किन्हीं और लोगों की लगती है
लाल-गुलाबी संसार का किस सहजता से विलोप हुआ
वह हमारी आँखे नहीं बता पाएँगी
ह्रदय की रक्त-कोशिकाओं को ही इसका कुछ पता होगा

उन स्त्रियों को भी नहीं
जिन्हें उसे लेकर कई भ्रम थे
जो अब तक मृत्यु के बारे में बहुत थोड़ा जानती हैं
वे दरअसल स्वयँ मृत्यु हैं
जो उस तक शक़्ल बदल-बदलकर आईं
सचमुच मौत ने बनाया था उससे फ़रेब का ही रिश्ता

न प्रेम न नफ़रत
कायनात दरअसल एक बदरँग जाल है
जिसमें सबसे ठीक से फँसी दिखती है उदासी ही ।