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तैर रहा इतिहास नदी में / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
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तैर रहा है
यहाँ, बंधु, इतिहास नदी में
खँडहर कोट-कँगूरे तिरते उधर मगध के
इधर लहर लेकर आई है अक़्स अवध के
काँप रही है
उनकी बूढ़ी साँस नदी में
डोल रहा है महाबोधि बिरवे का साया
वहीँ तिर रही कल्पवृक्ष की भी है छाया
घोल रहे वे
सदियों की बू-बास नदी में
कहीं अहल्या कहीं द्रोपदी की परछाईं
सिया-राम की झलक अभी दी उधर दिखाई
बिछा पड़ा है
पुरखों का विश्वास नदी में