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घाम ओढ़ हँस रही डगर है / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र

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सुनो, संगिनी
सूरज आया
बहुत दिनों के बाद इधर है

उसके घोड़ों के अयाल से
जोत झर रही
एक नई आस्तिकता
मन में पुलक भर रही

पूरब दिशा
लग रही जैसे पूजाघर है

सगुनापाखी की गुहार
दी आज सुनाई
नहीं रहेगी शीतलहर भी
अब हरजाई

ऊपर मन्दिर में
साधू का उमगा स्वर है

धुंध-कुहासे हटे
हवा भी गीत हो रही
उधर झील के जल में
देखो, धूप है बही

वहीँ किनारे
घाम ओढ़ हँस रही डगर है