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आमंत्रण / मुकेश प्रत्यूष

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सपनों की राह में बनने लगे हैं
गड्ढे
और जागी आंखों में राह में अटक जाते हैं रोड़े

बरस रही है इस बार फिर आसमान से आग
रातों में भी चल रही है लू
कर रही है कोशिश
धरती
खोलकर शरीर का रोंया-रोंया
जद्दोजहद जिन्दगी की
फिर चल रही है धूल भरी आंधी
आसार हैं नहीं होगी इसबार फिर मानसून से मुलाकात
घाट से दूर चली गई है गंगा
उदास हैं देवी
महीनों से किसी ने चढ़ाया नहीं है सिंदूर
आओ कि बिछ गई हैं नीमकौड़िया
फट रहे हैं जामून
और रह-रह कर चू रहे हैं महुये
आओ कि मुश्किल हो रहा है पहचानना हवाओं में मिली गंध को
आओ कि
धधकती रेत पर आचमन की प्रतीक्षा में खड़ा मैं
लिख-लिख कर हवा में मेट रहा हूं मैं तुम्हारा नाम
आओ इसबार देख कर भी देख नहीं पाऊंगा तुम्हारा देखा हुआ चेहरा
संकल्प है नहीं करुंगा हस्ताक्षर भी दी तुम्हारी हथेली पर
आओ कि विदा का वक्त है
कहो शुभ हो यह अंधेर से अंधेरे की यात्रा
जानते हुये भी कहा झूठ
कहो कि होगा पाथेय
आओ कि चाहिये ही अब आना