प्रज्ञा प्रतिज्ञा / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
प्रज्ञा सहयोग पूर्ण नियमन है.
नीति , नियम, आचार , विचार, विधि , विधान
से बंधित आचरण तात्कालिक होते हैं.
जब कि प्रज्ञा से,
स्वेच्छा पूर्वक, नियमित
आचरण त्रिकालिक होते है.
बाहरी प्रतिज्ञा से नहीं,
आंतरिक प्रज्ञा से चलो .
प्रतिज्ञा स्थूल गामी है,
प्रज्ञा सूक्ष्म गामी है.
प्रतिज्ञा बहिर्गामी है,
प्रज्ञा अंतर्गामी है.
प्रतिज्ञा बंधन है,
प्रज्ञा मुक्त आत्म स्पंदन है.
प्रतिज्ञा टूटती है,
प्रज्ञा जोड़ती है.
प्रतिज्ञा उचित या अनुचित हो सकती है,
प्रज्ञा केवल समुचित होती है.
प्रतिज्ञा की दिशा और गति ,
अधोगति या उर्ध्व्गति हो सकती है
किंतु
प्रज्ञा आत्मोत्थान से चर्मोत्थान तक जाती है.
जुडाव और ठहराव के सारे सूत्र प्रज्ञा में हैं.
अतः
हम प्रतिज्ञा से नहीं प्रज्ञा से चलें .