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मेरे नियति पुरूष / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
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एक चिर प्यासी खंड -खंड दरकती धरती हूँ मैं
साश्रु नयन प्रार्थना मैं लीन
सुधा प्राशन को भटकती हूँ मैं.
कर्म भोग अपने बहुत ही एकाग्र ,
संचेतन चेतना से भोग रही
भाषा परिभाषा से परे,
भवितव्य को भोगते ही बँटा है,
संयोग यही.
अब अपने पार्थिव शरीर में,
अपने अस्तित्व की अस्मिता
तापसी प्रवज्या और संतप्त आत्मा ,
जन्मान्तर गामी , आत्म हारी विदग्धता ,
मेरा नियति पुरूष,
तुम्हेबनाने के पीछे ,
नियंता का कोई विशेष प्रयोजन रहा होगा.,
वरना इस छोटी सी आयु में,
आगत, वागत, भोग कर,
अविचल तितिक्षा को , मुझ सा प्यासा ,
कोई न रहा होगा.