चलती हुई रेल में कविता / शरद कोकास
एक
चलती हुई रेल में
खिड़कियों के शीशे चढ़े हों
क़ैद हो रोशनी डिब्बे के भीतर
उस पार हो गहरा अन्धेरा
काँच पर उभरते हैं
अपने ही धूमिल अक्स
बस इसी समय
मन के शीशे पर
उभरता है कोई चेहरा
जो मौज़ूद नहीं होता
चलती हुई रेल में ।
दो
सो जाएँ जब सब के सब
गहरी नीन्द में
मैं जागती हूँ उनीन्दी
नीन्द में ढलकते सिर के लिए
कोई कान्धा नहीं होता
वह भी नहीं जिसे मेरा सर
एक स्टेशन मानकर
टिक जाता था
कौन है तुम्हारे सिवा
जिससे कह सकूँ
मन की तमाम बातें
दिल की धड़कनों की
चलती हुई रेल में
साथ चलते हो तुम
लिए अपनी बातों का पिटारा ।
तीन
ठीक इसी वक़्त
घड़ी ने तीन बजाए हैं
ठीक इसी वक़्त
उचटी है मेरी नीन्द
ठीक इसी वक़्त
मन की चलती हुई रेल भी
ठिठकी होगी
यादों के किसी
छोटे से स्टेशन पर ।