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जाड़ के मारे / पीसी लाल यादव

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जाड़ के मारे सुरूज, जंगरोतिहा होगे।
रात उरमाल रिहिस, तेन धोतिया होगे॥

फूलत-फरत राहेर म, झपागे किरवा,
अकरसहा बादर-पानी, परलोखिया होगे।

आगी घलो काँपत हे, जुड़ म लुद-लुद,
बड़े बिहनिया सो-उठ, खर्रा सेखिया होगे।

चारों मुड़ा छाय हवे, लहोलेत्ता धुंधरा,
माड़ा म सपटे बघवा, घलो कोलिहा होगे।

फुलगी म बइठे कोकड़ा, अगरोत रऊनिया,
सुरूज के आरो लेवत, यहा मंझनिया होगे।

भर्री तापत बइठे बबा, डोकरी ल कहत हे,
देख नवा दुल्हिन कस, देंह पोतिया होगे।

कनकनावत जाड़ तभो? लइका मारे कुदेल्ला,
दामा दे के डर म अब, सुरूज रेंधिया होगे।