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मैं कहता हूँ! / महेन्द्र भटनागर

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मैं शोषित दुनिया के
आज करोड़ों इंसानों से कहता हूँ,
मैं भूखों-नंगों, पददलितों,
बेबस और निरीहों की
आहों से कहता हूँ —
अब और अँधेरे में
मत खोजो पथ अपना,
अब और न देखो
अंतर की आँखों से सपना !
खोलो पलकों को साथी,
नया सबेरा
आज तुम्हारे स्वागत को तैयार !
कोयल वृक्षों के झुरमुट से
कहती आज पुकार-पुकार —
नया सबेरा, नया ज़माना
बदल गया संसार !

मैं उन लड़ने वाले,
हिमगिरि की छाती पर चढ़ने वाले,
कंटक-पथ पर बढ़ने वाले
चरणों से कहता हूँ —
अब मंज़िल बिल्कुल पास तुम्हारी,
निश्चय ही
होगी पूरी आस तुम्हारी !
युग-युग की
सारी बीमारी मिट जाएगी !
मुख पर छायी
करुण उदासी हट जाएगी !
नयी हवा में, स्वच्छ हवा में
तन को जर्जर करने वाले कीड़े-मच्छर
इस दुनिया से भग जाएंगे,
उड़कर दूर कहीं पर
कीचड़-दलदल पर मँडराएंगे !

मैं उन भारी-भरकम
युग-नभ-भेदी दुर्दम
आवाज़ों से कहता हूँ —
नवयुग का जय-जयकार करो !
अगणित कंठों में
विजयी गान भरो !
फ़ौलादी ताक़त जनता की
कल के अवरोधी दुर्गों पर
उन्मुक्त खड़ी !
हो, सचमुच, ऐसी घड़ियों की
उम्र बड़ी !

मैं उन जीने और जिलाने वालों से,
इंसानों की शक्लों में
जाग्रत शांत फ़रिश्तों से,
जनयुग को
मज़बूत बनाने वालों से कहता हूँ —

धरती खोदो !
माँ आँचल में
सोने-चांदी के उपहार लिए,
बरसों से सतत प्रतीक्षा में
देख रही है राह तुम्हारी !
पहुँचो
आयी बड़े दिनों के बाद
ग़रीबों की बारी !