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दिक्-काल / दिनेश्वर प्रसाद
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कहाँ वह बिन्दु
जिस पर मैं टिकूँ ?
कहाँ वह क्षण
जिसमें मैं रुकूँ ?
धारा में
मेरा परिचय बह गया है ।
शून्य कभी दर्शन था,
अब गणित हो गया है ।