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शब्द / दिनेश्वर प्रसाद
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मैंने रेशमी वस्त्र पहने शब्दों को
नमस्कार कर दिया है
अपनी हड्डियों से दस गुना अधिक जगह
घेरनेवाले शब्दों को
अपने दरवाज़े से बाहर कर
कभी नहीं आने को
विदा कह दिया है
मैने खोखली हँसी और नकली आँसू
और चार तह पाउडर वाले शब्दों को
तक तक प्रतीक्षा करने को कहा है
जब तक आदमीयत
खोखली न हो जाए
मैंने आदिम, बर्बर, रोयेंदार शब्दों को
गँजे शब्दों को
बुलाया है
और चिथड़ों में लिपटे, सीलन भरे कमरों में बन्द
गन्दे शब्दों को
मैंने बारूदी, फौलादी शब्दों को
खुले कण्ठ से पुकारा है
और इन सबसे, इन सबसे
कह दिया है —
आओ, मेरी दुनिया में छा जाओ
ताकि चट्टानें हिल उठें
और दीवारें टूट जाएँ !
(1965)