भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शब्द / दिनेश्वर प्रसाद

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:15, 27 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश्वर प्रसाद |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने रेशमी वस्त्र पहने शब्दों को
        नमस्कार कर दिया है
अपनी हड्‍डियों से दस गुना अधिक जगह
        घेरनेवाले शब्दों को
अपने दरवाज़े से बाहर कर
कभी नहीं आने को
        विदा कह दिया है

मैने खोखली हँसी और नकली आँसू
और चार तह पाउडर वाले शब्दों को
तक तक प्रतीक्षा करने को कहा है
जब तक आदमीयत
खोखली न हो जाए

मैंने आदिम, बर्बर, रोयेंदार शब्दों को
गँजे शब्दों को
        बुलाया है

और चिथड़ों में लिपटे, सीलन भरे कमरों में बन्द
        गन्दे शब्दों को
मैंने बारूदी, फौलादी शब्दों को
        खुले कण्ठ से पुकारा है
और इन सबसे, इन सबसे
कह दिया है —

आओ, मेरी दुनिया में छा जाओ
ताकि चट्टानें हिल उठें
और दीवारें टूट जाएँ !

(1965)