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कुमारजीव / दिनेश्वर प्रसाद
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धरती की किन गुफाओं में
सो गए हैं
कूचा के राजमहल ?
किन हवाओं ने पी ली है
फेन उगलते घोड़ों की
पदचाप ?
कहाँ हैं मरुप्रान्तरों पर अँकित
तुम्हारे पदचिह्न ?
क्या सब कुछ हो गया है शून्य ?
नहीं नहीं नहीं
अतीत में बन्दी ध्वनियाँ
फिर शब्द होंगी
तुम्हारी हड्डियों से एक दिन
बोधिवृक्ष फूटेगा
(1965)