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तुम्हारे आते ही / दिनेश्वर प्रसाद
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तुम्हारे आते ही
मन के घने जँगल में सूरज उग आता है
कोहरे में लिपटी हुई पहाड़ियाँ
सिर उठाने लगती हैं
और ताल का बरसों से थिराया हुआ पानी
सहसा काँप जाता है
न जाने कितनी सदियों की किन-किन देहों को
पारदर्शी करती हुई
अनजानी-अनसूँघी गन्ध
मुझ तक बढ़ आती है !
(20 अक्तूबर 1968)