गान्धी के प्रति / दिनेश्वर प्रसाद
तुममें सदियों से कुचले,
दूसरों के सुख के भार के
नीचे पड़े, कराहते
इतिहास की यात्रा ढोते हुए लोग
अपने को जानने लगते हैं
तुम में पश्चिम से उड़कर आई हुई झुर्रियाँ
अपनी देह से पोंछता हुआ
एशिया बोल उठता है
कि सभ्यताओं के बुढ़ापे ने
आबेहयात खोज लिया है
तुममें अफ्रीका के, सूरज से बार-बार देखे हुए लोग
आदिम स्वच्छन्द, निर्बन्ध लोग
ब्रितानी शस्त्रों के घेरे में
हीनता की गाँठें खोल लेते हैं
गौरी मौत की जकड़ को
फौलादी जीवन
तुममें दुनिया की सभी जातियों के रँग
इन्द्रधनुष हो गए हैं
सभी भाषाओं के शब्द
एक कोश बन गए हैं
आदमी की अलग-अलग सतहों को
एक सतह मिल गई है
सभी रागों को एक राग,
सभी गीतों को एक गीत
सभी काव्यों को महाकाव्य मिल गया है
तुममें शान्ति के कपूत और शक्ति के बाज
एक हो गए हैं
करुणा और क्रान्ति जुड़वाँ बहनें बनीं
(तरँगें घहराता झाग उगलता
सागर
मन्दाकिनी हो गया है)
तुममें बुद्ध ने ईसा से बातें की हैं
और स्पार्टेकस और मार्क्स को बुलाकर
आदमी की नियति का नया रास्ता
निकाला है
तुममें सभी लकीरें एक चित्र में बदल गई हैं
अतीत और वर्तमान समानान्तर हो गए हैं
तुममें सभी दिशाएँ मिल गई हैं