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नयी सुबह / महेन्द्र भटनागर

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जो बर्फ़ीली रातों में
ओढ़े कुहर का कम्बल,
गठरी से बन
चिपका लेते उर से टाँगे निर्बल ;
अधसोये से
कुछ खोये-खोये से
देखा करते नयी सुबह का स्वप्न मनोरम,
कब होता है विश्वास कराहों से कम ?

सर्दी ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है
नव-जीवन की चिनगारी
निकट सरकती आती है।
ये आँखें देखेंगी कुछ क्षण के बाद
नया सबेरा, नया ज़माना !
नव-जीवन का नव-उन्माद !

कभी भी बुझ न सकेगा
जलता नूतन दुनिया के
आज करोड़ों मेहनतकश इंसानों की
आशाओं-अभिलाषाओं का नया चिराग़ !