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गज़ैले के प्रति / दिनेश्वर प्रसाद

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तुमने कहा, मातृभाषा अपने स्वभाव से
तभी मधुर हो पाती है जब हम करते हैं
उसकी संरचना का आदर;
तभी हमारे अधरों पर वह हो पाती है
अर्थ और ध्वनियों का नाटक
जब हम उसे हृदय का रस करते हैं अर्पित;
तभी धूप के बादल-जैसी सघन गन्ध
के साथ उमड़ती
जब जनता के जीवन-रूपी धूपदान में
उसे जलाते

तुमने कहा, मातृभाषा-सम्मोहन जिसको
नहीं भिगोता
वह क्या शब्दातीत स्पर्श को
आकृति देगा?
और त्याग देता है जो अपनी भाषा को
वह होता उच्छिन्न मूल से
और दूसरों की ज़मीन पर मूलरहित हो
वह अभिशप्त प्रेत-सा सदा भटकता रहता

पश्चिम में जो सूर्योदय देखा करते हैं,
उन्हें कौन समझा सकता है
धुर पश्चिम के एक महाकवि की यह वाणी ?

(1983)