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बार-बार घिरती हुई बदली / दिनेश्वर प्रसाद
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बार-बार घिरती हुई बदली
बार-बार डँसती हुई हवा
चिन्दी-चिन्दी होता हुआ दिन
टुकड़ों में बँटती हुई रात
यह कैसी ठण्ड
जो ताप पर हावी है ?
दिशाएँ खीझी हुई
धरती सिकुड़ी हुई
और पहाड़ झुके हुए
एक रहस्य ओढ़कर पसरा हुआ
अन्तहीन मौन
कानों में उँगली डाल
सिर्फ़ मुस्कुराता है
आवाज़ें पीता और
उबाऊ चुप्पी उगलता है
भवें टेढ़ीकर उबलते हुए प्रश्न
उसे घेरकर खड़े हैं
शायद वह सुलगेगा
शायद अब बोलेगा
(10 फरवरी 1984)