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शोषित अब अंगार बने हैं / शैलेन्द्र सिंह दूहन
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तोड़ पुरानी जंजीरों को
छोड सभी पिछली पीरों को,
द्रोही स्वर में शंख बजा ये
ज्वारों का सिंगार बने हैं
शोषित अब अंगार बने हैं।
गढ़-मठ सारे टूट गये हैं
दुखते फोड़े फूट गये हैं,
ठंड़े चूल्हों की गरमी से
लपटों के उपहार बने हैं
शोषित अब अंगार बने हैं।
बासी रोटी गमक रही है
शोले बन के भबक रही है,
बेबस अपने आँसू पी कर
साहस की पतवार बने हैं
शोषित अब अंगार बने हैं।