भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गीत 14 / प्रशान्त मिश्रा 'मन'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:14, 5 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रशान्त मिश्रा 'मन' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिसने अब तक
प्रेम सिखाया और प्रेम का रोग लगाया,
उसने ख़ुद से दूर रखा है मुझको खो देने के डर से।
डरती है मेरे नयनों से
मुझसे नयन चुराकर रहती।
और अधूरी बात छोड़कर चलती हूँ मन! थम कर कहती।
किन्तु एक दिन आकर मुझमें घुल जाएगी यही सत्य है
रह पाई है दूर सरित कब .? इस दुनिया में चिर सागर से।
जिसने अब तक...
उसकी सुधियों
से महके है मेरे घर का कोना कोना।
इसलिए तो आवश्यक है उसका मेरे सँग में होना।
मेरे आँगन की तुलसी वो मुझ तक आने से डरती है-
जबकि बहुत ही लघु दूरी है मेरे घर की उसके घर से।
जिसने अब तक...
मैं चन्दन मन शीतल मेरा वह मलिका इस चन्दन वन की।
उसने मुझ में प्रेम जगाया मैंने उसको कह दी मन की।
उसके अधर मौन हैं लेकिन नयन नहीं चुप रह पाएंगे-
पीर विरह की क्या होती है? बतलाएंगे वे अंतर से।
जिसने अब तक...