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दुर्बल / जय गोस्वामी / रामशंकर द्विवेदी

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इस समय कमज़ोर रचना रचने की इच्छा होती है ।
जिसमें कुछ नहीं होता ना प्रतीक, ना संकेत, ना कोई रहस्य ।
सिर्फ़ रहता है मन
अच्छा बताओ, मन किसे कहतें हैं ? बताओ ना !
तुम्हारे बैठने की भंगिमा, तुम्हारा ताकना, एकाएक हंस पड़ना,
अथवा उठकर चले जाना, इस कमरे से उस कमरे में —
एक हाथ में पानी का गिलास, होंठों से लगा गिलास का किनारा —

सिर्फ इतने को ही मन कहते हैं, जो हैं मूर्ख लोग
मैं भी हूँ उन मूर्खों में एकजन —
यही तो काफ़ी है इससे अधिक
और मैं क्या समझाऊँगा !
तुम्हारी तुच्छाति तुच्छ, भंगिमाएँ, एक दुर्बल कविता में
उठा-उठाकर रख दूँगा, ओ ! अविस्मरणीया !

मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी