भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जानना / जय गोस्वामी / रामशंकर द्विवेदी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:24, 5 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जय गोस्वामी |अनुवादक=रामशंकर द्व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कमरे में घुस आई तुम
सफ़ेद रंग की सलवार - कमीज़ में
मेरी नई पुस्तक हाथ में लेकर
उलट डाले दो पन्ने
घर में आज और कोई नहीं है,
इसीलिए स्वयं
दो कप चाय बना लाया
दोनों जनों के चेहरे पर
जंगले की ग्रिल की फाँक से आ
रही है अस्ताभ की लालिमा,
यह बात वह बात होने लगी,
वही बात मैं कह रहा हूँ
तुम्हारी खिलखिलाहट के शब्द ने
खोल दिए हैं पूरे कमरे में पँख
जिस उम्र में मैं पहुँच गया हूँ,
वहाँ पर क्या मन नाम की
कोई चीज़ रह जाती है ?
यदि रह जाती है तो बताओ,
मेरे मन की बात
क्या तुम्हारी जानी हुई है ?
मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी