कुटिल भ्रूक्षेप
कितने कुटिल भ्रूक्षेप !
कितना विशृँखल मन
मेरे भीतर से निकलकर
धरती पर पड़ा हुआ है
कितने सन्देह,
कितने अनादर
कितने दावे —
बैठी हो तुम मेरी आँखों के सामने,
सिर्फ़ बैठने मात्र से ही
किस तरह से सारे घावों को
तुमने नीरोग कर दिया है,
मैं यही सोच रहा हूँ ।
मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी