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निरामय / जय गोस्वामी / रामशंकर द्विवेदी

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कुटिल भ्रूक्षेप
कितने कुटिल भ्रूक्षेप !

कितना विशृँखल मन
मेरे भीतर से निकलकर
धरती पर पड़ा हुआ है

कितने सन्देह,
कितने अनादर
कितने दावे —

बैठी हो तुम मेरी आँखों के सामने,
सिर्फ़ बैठने मात्र से ही
किस तरह से सारे घावों को
तुमने नीरोग कर दिया है,

मैं यही सोच रहा हूँ ।

मूल बाँगला भाषा से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी