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ज्वार और नाविक / महेन्द्र भटनागर
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नाव नाविक खे रहा है !
सिंधु-उर को चीर अविरल
दौड़तीं लहरें भयंकर,
सनसनाती हैं हवाएँ
उग्र स्वर से ठीक सर पर,
छा रहा नभ में सघन तम
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
- पास हिंसक जंतु कोई
- साँस लम्बी ले रहा है !
दूर से आ मेघ गहरे
घिर रहे क्षण-क्षण प्रलय के,
घोर गर्जन कर दबाते
स्वर सबल आशा विजय के,
घूरती अवसान-बेला
मृत्यु से अभिसार है,
पर
- अटल साहस से सतत बढ़
- यह चुनौती दे रहा है !