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संग्राम / महेन्द्र भटनागर

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आज जीवन की अमरता सोचना, अभिशाप है !

सामने जब नाश से उलझा हुआ संघर्ष है,
चाहना परलोक ? जब नव चेतना का हर्ष है,
पंथ पर नूतन चरण की शक्तिमय पदचाप है !

आज नूतन का पुरातन पर विजय का नाद है,
सृष्टि नव-निर्माण अविरत-साधना उन्माद है,
वज्र से फौलाद का अंतिम प्रखर आलाप है !

घोर झंझा के झकोरों में मरण से द्वन्द्व है,
प्राण पंछी नापता नभ; क्योंकि अब निर्बन्ध है,
वेदना-बोझिल-हृदय का मिट रहा संताप है !

बंधनों की अर्गला में बद्ध युग-जीवन न हो,
भय भरी उर में मनुज के एक भी धड़कन न हो,
हो मुखर हर आदमी जो आज नत, चुपचाप है !

बन सुदृढ़ संस्कृति सरल नव सभ्यता लो आ रही,
पूर्ण युग-जीवन बदलता औ’ बदलती है मही,
नव लहर से विश्व का कण-कण बदलता आप है !