गुमी हुई औरत / समृद्धि मनचन्दा
एक पुरातन अज्ञातवास की
बोझिल दोपहर में उसने
ख़ुद को इस कदर सहल पाया
कि उसे क्लिष्टता की
बेतहाशा इच्छा होने लगी ।
यूँ तो प्रेम सदा से
उलझन का कोई बिम्ब रहा है
पर आज उसे वह भी सरल जान पड़ा ।
मैले-कुचैले शब्दों के ढेर के नीचे
कुछ पुराने फ़िल्मी गाने और
एक बिसराया मौन पड़ा था ।
कोई आगन्तुक उसके गर्भ में था
और एक लम्बे उघड़े सफ़र की सौन्ध
उसके पोरों में ।
सब कितना आसान लगने लगा था
औरत होना भी !
उसे साँस लेने में इतनी सहूलियत कभी नहीं हुई थी
इसलिए इतनी सहजता से घबरा गई ।
उसने हौले से अम्बर खटखटाया
कि उस पार शायद कोई विषम नदी होगी
जिसपर पुल बनाते-बनाते
दुहरी हो जाएगी उसकी रीढ़ ।
पर, हाय ! विषमताएँ कब इतनी सुलभ हुई हैं !
सब सरलताएँ कितनी सघन !
बीच का सबकुछ तो त्वरित ही हुआ है हमेशा ।
सच कितना दुःखद था सब !
उसका होना ।
उसका एक जटिल औरत होना ।
उसका स्थायित्व ।
उसका निर्वासन ।
उसकी बाहरी और आन्तरिक यात्राएँ ।
उसके स्वघोषित अज्ञातवास ।
ऊपर देखा तो सितारों के सुराख़ से
रिस रहा था अम्बर.
दोपहर कोनों से कुछ गीली थी ।
कमरे की खिड़कियाँ ऊँघ रहीं थीं ।
उसने अन्धियारे मन को टाकियाँ लगाईं
और लौट गई एक स्थगित भाषा के
मौन अवसान में ।
जब एक औरत खो जाती है
कोई नहीं आता उसे लौटाने
जब पलट आती है कोई गुमी हुई औरत
समय की सारी किरचें बुदबुदाती हैं
सरलताएँ टटोलती हैं अपना घनत्व ।
क्लिष्टता की कोई परत दरक जाती है !