भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पूर्ण विराम / यतीश कुमार
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:36, 17 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतीश कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दिखता है
बुद्ध के घुंघराले बालों जैसा
अंधेरे को केंद्र में दबोचे
झाँकता है सूरज पीछे से
चाँदना की लालिमाऊ
आतुर है मुस्कान लिए
खिलखिलाने -फैल जाने को
पहाड़ की ओट से आभा धीरे-धीरे
फैल रही है धान के बीचरे पर
भीतर कोलाहल है, दृश्य का
कंचे की तरह उछलते कूदते बुलबुले
निरंतर ध्वस्त हो रहे हैं
दृश्य बोल रहा है
परिदृश्य की खामोशी को
चुपके से तोड़ता
बीचरे रौंदे जा रहे हैं
पानी अंदर ही अंदर धँसता जा रहा है
कीचड़ के भीतर-बाहर
परत दर परत
मिट्टी सूखी-सूखी
फिर पानी,पत्थर और शब्द
सब ग़ायब
बुद्ध की हर लट में
सैकड़ों लहरें है
और वह बस मुस्काता है