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देह, बाज़ार और रोशनी - 4 / यतीश कुमार

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धुँध नीम अंधेरे में
झीमती आँखों के बीच
कुछ तारे टिमटिमा रहे हैं
बालू के ढेर पर
लोहा पिघलाने की तैयारी चल रही है

आठ साल के बच्चे ने अब
पत्थरों को तराशना सीख लिया है
उन्हीं मूर्तियों में ग्यारह साल की लड़की
अब रंग भर रही है

वे गोबर में जन्में कुकुरमुत्ते हैं
बिल्कुल सफ़ेद शफ़्फ़ाक
एक चिंगारी की तरह
सूरज की ताप बनने की यात्रा है

सोच में जमी हुई बारूद
अब पिघलने लगा है
चित्त की शीतल परतों पर हलचल है
बाह्य और भीतर एकमेव हो जाने को है
इस संगम से एक नए आन्दोलन का
उद्बोधन होने वाला है

भँवर में पतवार मिल चुका है उन्हें
चिंगारी विस्फोट के लिए तैयार है
स्वतंत्रता का सही अर्थ
तराशने की यात्रा है अब

और ऐसा ही हुआ
पंक से निकले अरुण कमल ने
पूरे पोखर को एक उपवन बना दिया
और अब वहाँ फूल खिलने से
दर्द नहीं उमंग की अभिलाषा होती है

परंतु इस शहर में कितने वनपोखर हैं
जिन्हें एक अरुण कमल का इंतज़ार है