वो भंवरा पागल कहाँ गया / आराधना शुक्ला
सारी क्यारी पूछ रही है, एक कली से हँस-हँसकर
जो तुझ पर मंडराता था वो भंवरा पागल कहाँ गया
जब जलती-तपती धरती, वो दौड़ा-दौड़ा आता था
जेठ-अषाढ़ की कड़ी धूप में, छतरी सा तन जाता था
उमड़-घुमड़कर करे ठिठोली, गरजे कभी डराये वो
कभी धरा की प्यासी धरती को आँसू बन जाता था
बरखा में भींगी धरती झुलसी-झुलसी ये पूछ रही
मुझे भिंगाने वाला वो अवारा बादल कहाँ गया
देख हक़ीक़त जलती आँखें राहत दिलवाता था वो
बंजर आँखों की धरती में सपने बो जाता था वो
पहरेदारी कभी नज़र का टीका बनकर करता था
कभी बांध नदिया जैसी आँखों का बन जाता था वो
सुर्ख़ उनींदी अँखियाँ भींगे आँचल से ये पूछ रहीं
हमें सजाने वाला वो सुरमा वो काजल कहाँ गया
चाँदी की डोरी में बंध पैरों से लिपटा रहता था
छम-छम की बोली में पगला जानें क्या-क्या कहता था
आने वाले क़दमों की आहट की अगवानी करता
थिरकन-चटकन-बिछड़न-भटकन सबकुछ चुप-चुप सहता था
पायल से टूटा तो उसका मन भी छन से टूट था
पायल बिलखे पूछ रही वो घुंघरू घायल कहाँ गया