भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ुद को ढूँढना / वीरेन डंगवाल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:51, 20 सितम्बर 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक शीतोष्ण हँसी में
जो आती गोया
पहाड़ों के पार से
सीधे कानों फिर इन शब्दों में

ढूँढना ख़ुद को
ख़ुद की परछाई में
एक न लिए गए चुम्बन में
अपराध की तरह ढूँढ़ना

चुपचाप गुज़रो इधर से
यहाँ आँखों में मोटा काजल
और बेंदी पहनी सधवाएँ
धो रही हैं
रेत से अपने गाढ़े चिपचिपे केश
वर्षा की प्रतीक्षा में