Last modified on 22 सितम्बर 2019, at 19:33

तलाश ख़त्म नहीं होती / नेहा नरुका

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:33, 22 सितम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नेहा नरुका |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैं दरख़्तों, दीवारों और रास्तों पर
सालों-साल तलाश करती रही उस एक शख़्स को
जो मेरे जैसा हो
जिसे मैं टूटकर प्यार कर सकूँ
थक-हार कर जब लौट आई घर
तो वह मिला मुझे मेरे ही कमरे के आईने में ...

मैंने कसकर भरना चाहा अपनी बाँहों में उसे
पागलों की तरह चूमना चाहा उसके ज़िस्म को हर जगह
पर एक काँच की दीवार हमारे बीच तनकर खड़ी हो गई ।

लाख कोशिशों के बाद मैं कभी नहीं मिल पाई उससे और न वो मुझसे
मेरे कमरे में अब काँच ही काँच बिखरा है
जिनमें बैठे हैं उस जैसे कई शख़्स
वे अक्सर मेरे पैरों और हाथों से ख़ून निकाल देते हैं
और अपने भी...
झूठे हैं वो जो कहते हैं, 'आईना कभी झूठ नहीं बोलता'