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प्रेम / अरुण चन्द्र रॉय
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पृथ्वी
जैसे घूमती है
धुरी पर अपनी
तुम घूम रही हो
निरन्तर
चाँद जैसे
निहारता है पृथ्वी को
मैं, तुम्हें
मेरे लिए प्रेम
एक दिन का उत्सव नहीं !