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शुभ ऋचाएँ प्रेम की / भावना तिवारी

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हो गया संपन्न सम्मेलन
लोग बनकर रह गए दोलन
और परिभाषित न फिर से हो सकीं
व्याख्याएँ प्रेम की!
 
निकटतम सम्बंध बोझीले हुए
जन्म के अनुबंध सब ढीले हुए
और सुधियों से नयन गीले हुए!
और आच्छादित न फिर से हो सकीं,
भावनाएँ प्रेम की!
 
हो गए पूरे सभी भाषण
बस दिखावे को रहा हर प्रण,
जानकी को छल गया रावण!
और वरदानित न फिर से हो सकीं
साधनाएँ प्रेम की!
 
संकलन अपने-परायों का
ज़िंदगी है ग्रंथ साँसों का,
संधि-विग्रह औ समासों का!
और संपादित न फिर से हो सकीं
यातनाएँ प्रेम की!
 
चाह कब साकार कर पाए
बेड़ियाँ, प्रतिबंध, हर पाए,
हम नहीं प्रतिकार कर पाए!
और स्वरसाधित न फिर से हो सकीं
शुभऋचाएँ प्रेम की!