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मन बसन्त टेरे / राजा अवस्थी

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मन बसंत टेरे
ठिठुरते रहे सबेरे।

पतझर की अगवानी में
पाला की मार पड़ी;
खेतों की अरहर सब उकठी
रोये खड़ी-खड़ी;

बारिस बिन चौमास गया
पानी पाताल गया,
बन्द पड़े कूपों में पम्पे
द्वारे खड़े अँधेरे।

बन्धु मिठाई लाल
बचायें कब तक मीठापन;
बौराये आमों से अबकी
आँधी की ठन-ठन;

बागों में अमिया असमय
पतझर की तरह झरीं,
नीचे बिछी सुगंध धरा पर
पेड़ खड़ा हेरे।

फगुनहटा पी गया दूध
गेहूँ की बालों का;
जाने क्या होगा
तलवों के दुखते छालों का;

रामसखी का इस बसंत में
गौना ठहरा है,
खेती के मत्थे क्या होगा
सुग्गा प्रश्न करे।

कोरी स्लेट नहीं किस्मत की
भीमा ने पाई;
दद्दा ने जमीन सब बेची
जीवन भर खाई;

बँटवारे के इन्तजार में
घर टूटे-फूटे,
ताके खड़ा बसंत
बसंती अब कैसे घेरे।