नगर / कंस्तांतिन कवाफ़ी / सुरेश सलिल
तुमने कहा, ‘‘मैं किसी अन्य देश जाऊँगा,
किसी अन्य तट पर उतरूँगा
खोजूँगा कोई अन्य नगर इससे बढ़कर ।
जो कुछ करने का प्रयास मैं करता हूँ
नियति है उसकी यहाँ ग़लत साबित होना,
दबा पड़ा है किसी मुर्दा चीज़ की तरह मेरा दिल,
कब तक भला मैं यहाँ
अपने दिमाग़ को ग़ारत होता रहने दूँ ?
जिधर सिर घुमाता हूँ, नज़र दौड़ाता हूँ जिधर
ज़िन्दगी के मनहूस खण्डहर ही पाता हूँ
यहाँ, जहाँ इत्ते साल गुज़ारे हैं —
बाद-बरबाद किया है बिल्कुल अपने को ।’’
कोई नया देश तुम नहीं खोजोगे, कोई नया तट
यह नगर हरदम लगा रहेगा तुम्हारे पीछे,
उन्हीं-उन्हीं गली-कूचों में चलखुर करते बूढ़े होगे
उन्हीं पड़ोसियों के बीच — उन्हीं घरों के दरमियान
बाल तुम्हारे सफ़ेद होंगे ।
इसी नगर में तुम्हें हरदम रहना होगा
छोड़ दो कहीं और की उम्मीद,
कोई पोत नहीं है तुम्हारे लिए, कोई पथ
और अगर तुमने ग़ारत की ज़िन्दगी अपनी
यहाँ — इस बुद्दे कोने में
हर कहीं ग़ारत करते दुनिया में तुम अपनी ज़िन्दगी ।
[1910]
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल