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नन्दिनी / अनिल जनविजय

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थे दिन वसन्त के जब तू मेरे जीवन में आईं
वारुणी की मादकता बन चेतना पर छाईं ।
गुज़रे बरसों-बरस पर तुझे भूल नहीं पाया
साथ मेरे तू अब भी जैसे मेरी ही परछाई ।।

जेठ-असाढ़ की गरमी में तू पड़ी मुझे दिखाई
और मेरी अंतरंगता देख थोड़ा-सा सकुचाई ।
पर नन्दिनी तब फिर से हम विलग हो गए
तूने सुनी न कोई मेरी सुलह और सफ़ाई ।।

वर्षा ऋतु की सुरभि संग तू फिर सामने आईं
मेरे स्नेह जल के नीचे तू भीगी और नहाईं ।
जब उमगते आलोड़ित थे सिहरे अंग हमारे
मुक्ति की प्रबल कामना तुझमें बाढ़ सी हहराई ।।

शीतऋतु थी अन्तिम बार जब तू जीवन में आईं
उष्मा दी मुझको और मेरे मन में तू समाईं ।
फिर अचानक हिम शीतल मन हुए हमारे
साथ मेरे रह गई, मीता, शीत रजनी अकुलाई ।।