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हम अधरों-अधरों बिखरेंगे / सीमा अग्रवाल

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तुम पन्नों पर सजे रहो
हम अधरों-अधरों
बिखरेंगे

तुम बन ठन कर
घर में बैठो
हम सडकों से बात करें

तुम मुट्ठी में
कसे रहो हम
पोर पोर खैरात करें

इतराओ गुलदानों में तुम
हम मिट्टी में
निखरेंगे

कलफ लगे कपडे
सी अकड़ी
गर्दन के तुम हो स्वामी

दायें बाए आगे पीछे
हर दिक् के
हम सहगामी

हठयोगी से
सधे रहो तुम
हम हर दिल से गुजरेंगे

तुम अनुशासित
झीलों जैसे
हल्का हल्का मुस्काते

हम अल्हड़ नदियों
सा हँसते
हर पत्थर से बतियाते

तुम चिंतन के
शिखर चढ़ो
हम चिंताओं में उतरेंगे