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शहनशाही मन / सीमा अग्रवाल

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खंडहर तन
की हवेली में अकड़ कर
घूमता है
शहनशाही मन

टहलती है
बुझ चुकी चिंगारियों की
सर्द गरमी

सख्त पत्थर की हथेली
खोजती है
तनिक नरमी

खुरखुरी
दीवार की झड़ती सतह पर
लीपता हैं
भीगते सावन

हाथ में रख
अनगिनत किस्सों कथाओं
की सुमरनी

जप रहा है
भोर से जाती निशा तक
बार कितनी

झींगुरों की
परुष ध्वनियों में निरन्तर
खोजता है
कुहुरवी गुंजन