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चूल्हा और किसी के घर का / सीमा अग्रवाल

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चूल्हा और किसी के घर का
किसी और का है भंडारा
और किसी का पत्तल-दोना
किसी और का है चटकारा

यहाँ वहाँ से मांग-तांग कर
हल्ला-गुल्ला, गर्जन-तर्जन
बहरे कानो ने लिख डाले
जाने कितने क्रंदन-कूजन

राम राम जप धरा जेब में
माल पराया मीठा-खारा

फुटपाथों की भोर-निशाएँ
'पाँच सितारा' ने रच डाली
भरे हुए पेटों ने परखी
भूख-प्यास की रीती थाली

पनही गाये फटी बिवाई
ले सिसकारी का इकतारा

खुले व्योम ने लिखी कथाएँ
पिंजरे वालों के पाँखों की
नदियों ने खींची तस्वीरें
तृषा भरी जलती आँखों की

कुल-कुनबे के गीत रच रहा
गलियों में फिरता बंजारा

जिया न जिन साँसों को हमने
शोध किया जी भर कर उन पर
शर्मिंदा करते हैं कह अब
पन्नो के अकड़े हस्ताक्षर

हम उन पृष्ठों के मालिक हैं
जिन पर कुछ भी नहीं हमारा