भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कंचन सौंप गया / सीमा अग्रवाल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:53, 4 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सीमा अग्रवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जितना वर्जित रहा
सृजन उतने ही सौंप गया
रहा उम्र भर रंक
पर हमें कंचन सौंप गया

मन को लगन लगी प्रियतम की
तन को दुनिया सूझे
मन की कुटिया और कहीं पर
तन महलों से जूझे
तन पर मन का मन पर तन का
ज़ोर न चलता कोई
तन बस तन की बात समझता
मन बस मन को बूझे

सत्य सनातन हो कर भी वह
विवश रहा इस हद तक
चुना स्वयं नेपथ्य झूठ को
मंचन सौंप गया

गढ़ी सरल निर्मल निर्लोभी
विस्मयकारी नगरी
चंदा जैसी मनहर सूरज
सी उजियारी नगरी
इंद्रधनुष के पंख बाँध कर
स्वप्न जहाँ उड़ते थे
भीनी ख़ुशबू वाली फूलों
सी रतनारी नगरी

मस्त मलंगी अपनी धुन में
कुछ यो डूबा-उबरा
अंधों के हाथों में पगला
दर्पण सौंप गया


आँखों में मधुमास पाँव नीचे
लावे का दरिया
मन अंदेशों के करील वन
बीच हँस रही बगिया
बूँद बूँद जीवन की पीना
और संजोना भी यों
ज्यों कंजूसी से ख़र्चे है
रुपया कोई बनिया

स्वयं रहा निरपेक्ष और थिर
पर देखो निर्मोही
दिल-दिमाग़ के बीच अनगिनत
विचलन सौंप गया