भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना / ऋतु पल्लवी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:43, 20 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अकबर इलाहाबादी }} कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है. ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है.


पावस के पीले पत्तों को स्वर्ण रंग दे

हार बना निज स्वप्न वर्ण दे

वासंती सा मोह जगाना,मन को भाता है.

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है .


व्यर्थ जूही-दल,मिथ्य वृन्द-कमल

केवल भरमाने को प्रस्तुत रंग-परिमल

इससे तो सुदूर विपिन में गिरे पलाश का मान बढ़ाना,मन को भाता है.

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है.


गर्मी के आतप से जलती जेठ-दुपहर में

एक-एक कर तिनका चुनते,नन्हें से पंछी के संग में

छोटा सा एक नीड़ बनाना,मन को भाता है .

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है.


हैं असीम आशाएं सबकी,सतरंगी सुख-स्वप्न सभी के

मनुज चाहता स्वार्थ सिद्धि हित,सारे मुक्तक भाग्य निधि के

इससे तो निस्पृह बच्चे की निश्छल इच्छा बन जाना,मन को भाता है .

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है.


जुड़े कई निश्चित से बंधन इस जीवन में

कई हैं अपने रिश्ता-नाते ,जग प्रांगण में

किन्तु किसी अंजान पथिक को अपना कहकर स्वयं मिट जाना,मन को भाता है.

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है.