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सार्वजनिक प्रेम / प्रतिमा त्रिपाठी

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जब उनकी देह से फ़ूट रहा था प्रेम
और उनके आसपास प्रेम की अनुभूति के लिए
अथाह संसार उमड़ पड़ा था
उस समय
वो कर रही थीं प्रेम ..ईश्वर से !

उसके मोरपंख किताबों में रखतीं
उसके होंठों की मुरली बन जाती
उसके चरणों में रखती सर और तर जाती
कभी कदम्ब की डाल से गले लगती तो कभी
जमुना में नहाते हुए करती रहीं प्रेम .. ईश्वर से !

मीरा की दीवानगी अपने भीतर टटोलती
कभी राधा बन श्याम में अपना मन घोलती
कृष्ण की रासलीला की वो इकलौती स्वप्नद्रष्टा थीं !

तुलसी के मनके पे वो कृष्ण के एक सौ आठ नाम जपतीं थीं जब
तब कई बार मन के किसी कोने में कृष्ण की सूरत बदल जाती
और वो भय से आँखे खोल क्षमा याचना करने में लीन हो जाती
देह की देहरी पे खड़ी वो समझा रहीं थीं अपने मन को आत्मिक प्रेम

क्या करती कृष्ण के सिवा किसी से प्रेम की अभिव्यक्ति वर्जित थी
तो वो करती रहीं.. उपलब्ध, सार्वजनिक और सुविधाजनक प्रेम !