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तुझे गर दर्द में राहत नहीं अब / सुरेखा कादियान ‘सृजना’

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तुझे गर दर्द में राहत नहीं अब
ये तेरा इश्क़ भी इबादत नहीं अब

कभी अशआर का मरकज़ रहा था
कोई मिसरा तिरे बाबत नहीं अब

मैं जिसके रस्ते फूलों से सजाती
उसे खुशबू की ही आदत नहीं अब

दग़ा करना जरूरी तो नहीं था
कहा होता के मोहब्बत नहीं अब

फ़लक से मैं गिरी हूँ जब से देखो
जमीं से तो कोइ शिकायत नहीं अब

चखा है इश्क़ को इक ही दफ़ा पर
मुझे ज़न्नत कि भी चाहत नहीं अब

किसे है याद रघुकुल रीत क्या थी
वचन को तोड़ना आफ़त नहीं अब