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रात का आलम / महेन्द्र भटनागर

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ठंडी हो रही है रात !
धीमी
यंत्रा की आवाज़
रह-रह गूँजती अज्ञात !

स्तब्धता को चीर देती है
कभी सीटी कहीं से दूर इंजन की,
कहीं मच्छर तड़प भन-भन
अनोखा शोर करते हैं,
कभी चूहे निकल कर
दौड़ने की होड़ करते हैं,
घड़ी घंटे बजाती है।
कि बाक़ी रुक गये सब काम,
स्थिर, गतिहीन, जड़, निस्पन्द
खोकर चेतना बेहोश
साँसें ले रही हैं जान
हो अनजान !

ऊँघते
मज़दूर, पहरेदार, श्रमजीवी
नशे में नींद के ऐसे —
कि मानों संगिनी रह-रह बुलाती
कर सतत संकेत
होने बाँह में आबद्ध
मन से, देह से
चुपचाप एकाकार लय होने
शिथिल !
स्वप्न से फिर जाग
अपने पर हँसी
आ खेल जाती है !
कि ऐसी भूल भी कैसी
सदा जो भूल जाती है !

न सीमा है कहीं
बेजोड़ है सारी अनोखी बात,
पर, है सत्य
ठंडी हो रही है रात,
भारी हो रहा अविराम
धुल कर चाँदनी से वात,
ऊपर बन रही है ओस
धुँधली पड़ रही है रात !

यह री कल खुलेगा
रेशमी पट
मुग्ध प्रकृति-वधू का गात !