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हार कर जीती रही मैं / उर्मिल सत्यभूषण
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छल भरे स्वर्णिम पलों को
सच समझ जीती रही मैं
ज़हर को अमृत समझ कर
मुद्दतों पीती रही मैं
जानती थी मानती न थी
कि नियति का खेल है यह
लेखनी लिखती रही सब
होंठ पर सीती रही मैं
बर्छियां चुभती कलेजे में
नयन में रक्त तिरता
इसलिए ही छटपटाती
पीर की गीति रही मैं
तोड़ता है कौन दिल को
हम स्वयं ही टूटते हैं
मिट्टी का रिसता घड़ा हूँ
भर के भी रोती रही मैं
दूसरों की जीत के उत्सव
मनाती ही रही मैं
किन्तु मुझको है प्रतीति
हार कर जीती रही मैं।